॥ श्री ज्ञानदेव हरिपाठ (Complete Lyrics) ॥ |
॥ एक ॥ |
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देवाचिये द्वारीं उभा क्षणभरी । तेणें मुक्ति चारी साधियेल्या ॥१॥ |
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हरि मुखें म्हणा हरि मुखें म्हणा।पुंण्याची गणना कोण् करी ॥२॥ |
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असोनि संसारीं जिव्हे वेगु करी । वेदशास्त्र उभारी बाह्या सदा ॥३॥ |
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ज्ञानदेव म्हणे व्यासाचिया खुणा । द्वारकेचा राणा पांडवांघरीं ॥४॥ |
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॥ दोन ॥ |
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चहूं वेदीं जाण साहीशास्त्रीं कारण । अठराही पुराणें हरिसी गाती ॥१॥ |
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मंथुनी नवनीता तैसें घे अनंता । वायां व्यर्थ कथा सांडी मार्गु ॥२॥ |
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एक हरि आत्मा जीवशिव सम । वायां तू दुर्गमा न घाली मन ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा पाठ हरि हा वैकुंठ । भरला घनदाट हरि दिसे ॥४॥ |
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॥ तिन ॥ |
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त्रिगुण असार निर्गुण हें सार । सारासार विचार हरिपाठ ॥१॥ |
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सगुण निर्गुण गुणाचें अगुण । हरिवीणें मन व्यर्थ जाय ॥२॥ |
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अव्यक्त निराकार नाहीं ज्या आकार । जेथुनि चराचर त्यासी भजें ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा ध्यानीं रामकृष्ण मनीं । अनंत जन्मांनी पुण्य होय ॥४॥ |
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॥ चार ॥ |
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भावेंवीण भक्ति भक्तिविण मुक्ति । बळेंवीण् शक्ति बोलं नये ॥१॥ |
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कैसेनि दैवत प्रसन्न त्वरित । उगा राहें निवांत शिणसी वायां ॥२॥ |
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सायासें करिसी प्रपंच दिननिशीं । हरिसी न भजसी कवण्या गुणें ॥३॥ |
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ज्ञानदेव म्हणें हरिजप करणें । तुटेल धरणें प्रपंचाचें ॥४॥ |
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॥ पाच ॥ |
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योगयागविधि येणें नोहे सिद्धी । वायांचि उपाधि दंभ धर्म ॥१॥ |
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भावेंविण देव न कळे नि:संदेह । गुरुविण अनुभव कैसा कळे ॥२॥ |
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तपेंवीण दैवत दिधल्याविण प्राप्त । गुजेंविण हित कोण सांगे ॥३॥ |
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ज्ञानदेव सांगे दृष्टांताची मात । साधूचे संगती तरणोपाय ॥४॥ |
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॥ सहा ॥ |
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साधुबोध झाला तो नुरोनियां ठेला । ठायींच मुराला अनुभवें ॥१॥ |
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कापुराची वाती उजळली ज्योति । ठायींच समाप्ति झाली जैसी ॥२॥ |
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मोक्षरेख आला भाग्यें विनटला । साधूंचा अंकिला हरिभक्त ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा गोडी संगति सज्जनीं । हरि दिसे जनीं आत्मतत्वीं ॥४॥ |
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॥ सात ॥ |
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पर्वताप्रमाणे पातक करणें । वज्रलेप होणें अभक्तासी ॥१॥ |
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नाहीं ज्यांसी भक्ति ते पतित अभक्त । हरिसी न भजत दैवहत ॥२॥ |
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अनंत वाचाळ बरळती बरळ । त्यां कैंचा दयाळ पावे हरि ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा प्रमाण आत्मा हा निधान । सर्वांघटीं पूर्ण एक नांदे ॥४॥ |
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॥ आठ ॥ |
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संतांचे संगतीं मनोमार्ग गति । आकळावा श्रीपति येणें पंथें ॥१॥ |
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रामकृष्ण वाचा भाव हा जीवाचा । आत्मा जो शिवाचा राम जप ॥२॥ |
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एकतत्व नाम साधिती साधन । द्वैताचें बंधन न बाधिजे ॥३॥ |
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नामामृत गोडी वैष्णवां लाधली । योगियां साधली जीवनकळा ॥४॥ |
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सत्वर उच्चार प्रल्हादीं बिंबला । उद्धवा लाधला कृष्णदाता ॥५॥ |
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ज्ञानदेव म्हणे नाम हें सुलभ । सर्वत्र दुर्लभ विरळा जाणे ॥६॥ |
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॥ नऊ ॥ |
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विष्णुविण जप व्यर्थ त्याचें ज्ञान । रामकृष्णीं मन नाहीं ज्याचें ॥१॥ |
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उपजोनी करंटा नेणें अद्वय वाटा । रामकृष्णीं पैठा कैसा होय ॥२॥ |
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द्वैताची झाडणी गुरुविण ज्ञान । तया कैचें कीर्तन घडे नामीं ॥३॥ |
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ज्ञानदेव म्हणे सगुण हें ध्यान । नामपाठ मौन प्रपंचाचे ॥४॥ |
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॥ दहा ॥ |
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त्रिवेणीसंगमीं नाना तीर्थे भ्रमी । चित्त नाहीं नामीं तरी तें व्यर्थ ॥१॥ |
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नामासी विन्मुख तो नर पापिया । हरिवीण धांवया न पावे कोणी ॥२॥ |
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पुराणप्रसिद्ध वोलिले वाल्मीक । नामें तीन्ही लोक उद्धरती ॥३॥ |
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ज्ञानदेव म्हणे नाम जपा हरीचें । परंपरा त्याचें कुळ शुद्ध ॥४॥ |
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॥ अकरा ॥ |
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हरि उच्चारणीं अनंत पापराशी । जातील लयासी क्षणमात्रे ॥१॥ |
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तृण अग्निमेळें समरस झालें । तैसें नामें केलें जपतां हरि ॥२॥ |
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हरि उच्चारण मंत्र पै अगाध । पळे भूतबाधा भेणे याचे ॥३॥ |
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ज्ञानदेव म्हणे हरि माझा समर्थ । न करवे अर्थ उपनिषदां ॥४॥ |
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॥ बारा ॥ |
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तीर्थ व्रत नेम भावेंविण सिद्धि । वायांचि उपाधि करिसी जनां ॥१॥ |
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भावबळें आकळे येऱ्हवीं नाकळे । करतळीं आंवळे तैसा हरि ॥२॥ |
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पारियाचा रवा घेतां भूमिवरी । यत्न परोपरी साधन तैसें ॥३॥ |
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ज्ञानदेव म्हणे निवृत्ति निर्गुण । दिधलें संपूर्ण माझे हातीं ॥४॥ |
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॥ तेरा ॥ |
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समाधि हरिची सम सुखेंवीण । न साधेल जाण द्वैतबुद्धि ॥१॥ |
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बुद्धीचें वैभव अन्य नाहीं दुजें । एका केशवराजें सकळ सिद्धि ॥२॥ |
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ऋद्धि सिद्धि निधी अवघीच उपाधि । जंव त्या परमानंदीं मन नाहीं ॥३॥ |
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ज्ञानदेवी रम्य रमलें समाधान । हरिचें चिंतन सर्वकाळ ॥४॥ |
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॥ चौदा ॥ |
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नित्य सत्य मित हरिपाठ ज्यासी । कळीकाळ त्यासी न पाहे दृष्टी ॥१॥ |
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रामकृष्ण उच्चार अनंतराशी तप । पापाचे कळप पळती पुढें ॥२॥ |
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हरि हरि हरि मंत्र हा शिवाचा । म्हणती जे वाचा तयां मोक्ष ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा पाठ नारायण नाम । पाविजे उत्तम निजस्थान ॥४॥ |
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॥ पंधरा ॥ |
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एक नाम हरि द्वैतनाम दुरी । अद्वैत कुसरी विरळा जाणें ॥१॥ |
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समबुद्धि घेतां समान श्रीहरि । शमदमांवरी हरि झाला ॥२॥ |
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सर्वांघटीं राम देहांदेहीं एक । सूर्य प्रकाशक सहस्ररश्मी ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा चित्तीं हरिपाठ नेमा । मागिलिया जन्मा मुक्त झालों ॥४॥ |
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॥ सोळा ॥ |
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हरिनाम जपे तो नर दुर्लभ । वाचेसी सुलभ रामकृष्ण ॥१॥ |
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राम कृष्ण नामीं उन्मनी साधली । तयासी लाधली सकळ सिद्धी ॥२॥ |
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सिद्धि बुद्धि धर्म हरिपाठीं आले । प्रपंची निवाले साधुसंगे ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा नाम रामकृष्ण ठसा । येणें दशदिशा आत्माराम ॥४॥ |
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॥ सतरा ॥ |
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हरिपाठकीर्ति मुखें जरी गाय । पवित्रचि होय देह त्याचा ॥१॥ |
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तपाचे सामर्थ्ये तपिन्नला अमूप । चिरंजीव कल्प वैकुंठीं नांदे ॥२॥ |
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मातृपितृभ्राता सगोत्र अपार । चतुर्भुज नर होऊनि ठेले ॥३॥ |
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ज्ञान गूढ गम्य ज्ञानदेवा लाधलें । निवृत्तीनें दिले माझ्या हातीं ॥४॥ |
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॥ अठरा ॥ |
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हरिवंशपुराण हरिनाम कीर्तन । हरिविण सौजन्य नेणें कांहीं ॥१॥ |
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त्या नरा लाधलें वैकुंठ जोडलें । सकळ घडलें तीर्थाटन ॥२॥ |
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मनोमार्गें गेला तो तेथे मुकला । हरिपाठीं स्थिरावला तोचि धन्य ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा गोडी हरिनामाची जोडी । रामकृष्णीं आवडि सर्वकाळ ॥४॥ |
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॥ एकोणीस ॥ |
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वेदशास्त्रपुराण श्रुतिचे वचन । एक नारायण सार जप ॥१॥ |
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जप तप कर्म हरिविण धर्म । वाउगाचि श्रम व्यर्थ जाय ॥२॥ |
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हरिपाठीं गेले ते निवांतचि ठेले । भ्रमर गुंतले सुमनकळिके ॥३॥ |
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ज्ञानदेवां मंत्र हरिनामाचे शस्त्र । यमें कुळगोत्र वर्जियेले ॥४॥ |
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॥ विस ॥ |
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नामसंकीर्तन वैष्णवांची जोडी । पापे अनंत कोडी गेली त्यांची ॥१॥ |
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अनंत जन्मांचे तप एक नाम । सर्वमार्ग सुगम हरिपाठ ॥२॥ |
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योग याग क्रिया धर्माधर्म माया । गेले ते विलया हरिपाठीं ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा यज्ञ याग क्रिया धर्म । हरिविण नेम नाहीं दुजा ॥४॥ |
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॥ एकविस ॥ |
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काळ वेळ नाम उच्चारितां नाही । दोन्ही पक्ष पाहीं उद्धरती ॥१॥ |
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रामकृष्ण नाम सर्व दोषां हरण । जडजीवां तारण हरि एक ॥२॥ |
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हरिनाम सार जिव्हा या नामाची । उपमा त्या देवाची कोण वानी ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा सांग झाला हरिपाठ । पूर्वजां वैकुंठ-मार्ग सोपा ॥४॥ |
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॥ बाविस ॥ |
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नित्यनेम नामीं ते प्राणी दुर्लभ । लक्ष्मीवल्लभ तयां जवळी ॥१॥ |
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नारायण हरि नारायण हरि । भुक्ति मुक्ति चारी घरीं त्यांच्या ॥२॥ |
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हरिविण जन्म नरकचि पैं जाणा । यमाचा पाहुणा प्राणि होय ॥३॥ |
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ज्ञानदेव पुसे निवृत्तीसी चाड । गगनाहुनि वाड नाम आहे ॥४॥ |
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॥ तेविस ॥ |
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सात पांच तीन दशकांचा मेळा । एक तत्त्वीं कळा दावी हरि ॥१॥ |
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तैसें नव्हे नाम सर्वत्र वरीष्ठ । तेथें कांहीं कष्ट न लागती ॥२॥ |
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अजपा जपणें उलट प्राणाचा । तेथेंहि मनाचा निर्धार असे ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा जिणें नामेंविण व्यर्थ । रामकृष्णीं पंथ क्रमियेला ॥४॥ |
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॥ चौविस ॥ |
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जप तप कर्म क्रिया नेम धर्म । सर्वांघटीं राम भाव शुद्ध ॥१॥ |
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न सोडी हा भावो टाकी रे संदेहो । रामकृष्ण टाहो नित्य फोडी ॥२॥ |
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जाति वित्त गोत कुलशील मात । भजकां त्वरीत भावयुक्त ॥3॥ |
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ज्ञानदेवा ध्यानीं रामकृष्ण मनीं । वैकुंठभुवनी घर केलें ॥४॥ |
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॥ पंचविस ॥ |
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जाणीव नेणीव भगवंतीं नाहीं । हरिउच्चारणीं पाही मोक्ष सदां ॥१॥ |
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नारायण हरि उच्चार नामाचा । तेथें कळिकाळाचा रीघ नाहीं ॥२॥ |
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तेथील प्रमाण नेणवें वेदांसी । तें जीवजंतूंसी केंवी कळे ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा फळ नारायण पाठ । सर्वत्र वैकुंठ केलें असे ॥४॥ |
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॥ सव्वीस ॥HariPaath |
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एक तत्व नाम दृढ धरीं मना । हरीसी करुणा येईल तुझी ॥१॥ |
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तें नाम सोपें रे राम-कृष्ण गोविंद । वाचेसी सद्गद जपे आधीं ॥२॥ |
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नामापरतें तत्त्व नाहीं रे अन्यथा । वायां आणिका पंथा जासील झणीं ॥३॥ |
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ज्ञानदेवा मौन जप माळ अंतरी । धरोनी श्रीहरि जपे सदां ॥४॥ |
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॥ सत्तावीस ॥ |
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सर्व सुख गोडी साही शास्त्रें निवडी । रिकामा अर्धघडी राहूं नको ॥१॥ |
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लटिका व्यवहार सर्व हा संसार । वायां येरझार हरिवीण ॥२॥ |
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नाम मंत्र जप कोटी जाईल पाप । रामकृष्णीं संकल्प धरुनि राहें ॥३॥ |
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निजवृत्ति हे काढी सर्व माया तोडी । इंद्रियांसवडी लपू नको ॥४॥ |
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तीर्थी व्रतीं भाव धरी रे करुणा । शांति दया पाहुणा हरि करी ॥५॥ |
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ज्ञानदेवा प्रमाण निवृत्तिदेवीं ज्ञान । समाधि संजीवन हरिपाठ ॥६॥ |
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॥ अठठावीस ॥ |
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अभंग हरिपाठ असती अठ्ठावीस । रचिले विश्वासें ज्ञानदेवें ॥१॥ |
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नित्य पाठ करी इंद्रायणीतीरीं । होय अधिकारी सर्वथा तो ॥२॥ |
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असावें एकाग्रीं स्वस्थ चित्त मनीं । उल्हासेंकरूनी स्मरावा हरि ॥३॥ |
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अंतकाळी तैसा संकटाचे वेळीं । हरि त्या सांभाळी अंतर्बाह्य ॥४॥ |
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संतसज्जनांनी घेतली प्रचीति । आळसी मंदमति केवीं तरे ॥५॥ |
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श्रीगुरु-निवृत्तिवचन तें प्रेमळ । तोषला तात्काळ ज्ञानदेव ॥६॥ |
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हरि मुखें म्हणा हरि मुखें म्हणा।पुंण्याची गणना कोण् करी |